महात्मा गांधी vs भगत सिंह

क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? उपरोक्त प्रश्न प्राय: समय-समय पर उठता रहा है। बहुत से लोगों का आक्रोश रहता है कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया।

भगत सिंह स्वयं किसी प्रकार की क्षमा याचना नहीं चाहते थे और उनका दृढ़ विश्वास था कि उनकी शहीदी देश के हित में होगी लेकिन प्रश्न यह है कि गाँधी ने क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयत्न किया या नहीं!
वास्तव में हम अधिकतर ऐसे वाद-विवादों को जन्म देते हैं जिनकी हमें जानकारी नहीं होती। ना हमने गांधी को पढ़ा होता, न भगत सिंह को फिर भी वाद-विवाद किया करते हैं।
गांधी ने 23 मार्च, 1931 को वायसराय को एक निजी पत्र में इस प्रकार लिखा था-
"१ दरियागंज, दिल्ली
२३ मार्च, १९३१
प्रिय मित्र,
आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने-जैसा लगता है; पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि ‍‌आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सज़ा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। डा सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि इसपर पुन: विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूँ।
जनमत, वह सही हो या गलत, सज़ा में रियासत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दाँव पर न हो, तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी होती है। यदि सज़ा हल्की हो जाती है तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सज़ा दी गई तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।
चूँकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसे भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं। इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए। यूँ ही वह कुछ सरल नहीं है।
मौत की सज़ा पर अमल हो जाने के बाद वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप सोचते हैं कि फ़ैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करुंगा कि इस सज़ा को, जिसे फिर वापस लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूँ। यद्यपि मैं बोल नहीं सकूंगा, [महात्मा गांधी उस दिन मौन पर थे] पर मैं सुन सकता हूँ और जो-कुछ कहना चाहता हूँ, वह लिखकर बता सकूँगा।
दया कभी निष्फल नहीं जाती।
मैं हूँ,
आपका विश्वस्त मित्र

[अँग्रेज़ी (सी. डब्ल्यू ९३४३) की नकल]

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