Ram prasad bismil

1.इलाही ख़ैर वो हरदम नई बेदाद करते हैँ
हमेँ तोहमत लगाते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ
ये कह कहकर बसर की उम्र हमने क़ैदे उल्फत मेँ
वो अब आज़ाद करते हैँ वो अब आज़ाद करते हैँ
सितम ऐसा नहीँ देखा जफ़ा ऐसी नहीँ देखी
वो चुप रहने को कहते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ|¶
2.ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो ।
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो ।।
अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में,
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो ।
तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो ।।
तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो ।।
वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले,
वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो ।।
3.बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।
लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।
खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।
कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।
यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।

4.न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना 
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना
भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना
लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन
करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना
नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना
5. मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ ।
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ ।।

माथे पे तू हो चन्दन, छाती पे तू हो माला ;
जिह्वा[1] पे गीत तू हो, तेरा ही नाम गाऊँ ।।

जिससे सपूत उपजें, श्रीराम-कृष्ण जैसे ;
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ ।।

माई समुद्र[2] जिसकी पदरज को नित्य धोकर ;
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ ।।

सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर ;
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ ।।

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मन्त्र गाऊँ ।
मन और देह तुझ पर बलिदान मैं चढ़ाऊँ

6.हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?




7.चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,

देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?


कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो !

ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है !


साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा !

आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है !


दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद ,

अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है !


बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना ,

'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है !

8.मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !

दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !


मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,

उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !


ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,

फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !


काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,

यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !


आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प ,

सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या

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